जानिये आखिर क्यों भगवान विष्णु की छाती पर महर्षि भृगु ने मारी थी लात

महर्षि भृगु (Maharishi Bhrigu) को ब्रह्मा जी का मानस पुत्र कहा जाता है। महर्षि भृगु की पत्नी का नाम ख्याति था जो दक्ष की पुत्री थीं। इनके बारे में कहा जाता है कि वे सावन और भाद्रपद के महीने में सूर्य के रथ पर सवार रहते हैं।

एक बार जब सभी ऋषि-मुनि सरस्वती नदी के निकट इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि त्रिदेव (Tridev God) कहे जाने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से सबसे सर्वश्रेष्ठ कौन है? काफी देर तक बातचीत करने के बाद भी इस विषय पर कोई निष्कर्ष निकलता नहीं दिखाई दे रहा था। निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए उन्होंने एक समाधान निकाला कि वे त्रिदेवों की परीक्षा लेंगे। ऋषि-मुनियों ने इस परीक्षा के कार्य के लिए महर्षि भृगु को नियुक्त किया।  

इसके बाद महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्मा जी (Brahma Ji) पास जाते हैं वे न तो उन्हें प्रणाम करते है और न ही उनकी स्तुति करते हैं। यह देख ब्रह्मा जी को महर्षि भृगु पर बहुत क्रोध आता है। उनका क्रोध इतना अधिक बढ़ जाता है कि मुख बिल्कुल लाल हो जाता है। आग जैसा ब्रह्मा जी का क्रोध अंगारों में बदल गया। कुछ क्षणों बाद उन्होंने अपना गुस्सा ठंडा करने का प्रयास किया यह सोचकर कि आखिर भृगु हैं तो उनके पुत्र ही। इस प्रकार उनकी विवेक बुद्धि ने क्रोध को दबा लिया।  

ब्रह्मा जी से भेंट करने के बाद महर्षि भृगु भगवान शिव (Bhagwan Shiva) से मिलने कैलाश पहुंचे। भगवान शिव ने जैसे ही महर्षि भृगु को आते देखा वे प्रसन्न हो उठे और अपने आसन पर जाकर बैठ गए। इसके बाद भगवान् शिव ने उनका आलिंगन करने के लिए अपनी भुजाएं खोलीं। 

परन्तु महर्षि उनका आलिंगन अस्वीकार कर देते हैं और कहते हैं कि महादेव अपने हमेशा ही धर्म, वेदों की मर्यादा का उल्लंघन किया है। आप इन दुष्ट राक्षसों व असुरों को जो वरदान देते हैं उनके कारण सृष्टि को कई प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ता है। आपकी इन गलतियों की वजह से मैं आपका आलिंगन कदापि स्वीकार नहीं करूँगा।  

महर्षि भृगु के मुख से यह सब बातें सुनकर वे गुस्से में लाल हो उठे। उनका क्रोध इतना अधिक बढ़ गया कि वे त्रिशूल उठाकर भृगु पर प्रहार करने लगे परन्तु बीच में देवी सती आ गईं। फिर उन्होंने अनुनय-विनय करके किसी तरह महादेव का क्रोध शांत किया।  

इस घटना के बाद महर्षि भृगु ने बैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान किया। उस समय भगवान विष्णु (Bhagwan Vishnu) देवी लक्ष्मी (Devi Lakshmi) की गोद में सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। महर्षि भृगु ने जाते ही भगवान विष्णु के वक्ष स्थल पर लात मारी। भगवान विष्णु तुरंत उठ खड़े हुए और कहा कि हे! भगवन आपके पैर पर चोट तो नहीं लगी? मुझे आपके आने का ज्ञान नहीं था। यहाँ आसन पर विश्राम कीजिये।

भगवान विष्णु ने आगे कहा कि आपके चरणों के स्पर्श से मैं धन्य हो गया। भगवान विष्णु का उनके प्रति प्रेम देख महर्षि भृगु के आँखों में आंसू आ गए। अंत में वे सभी ऋषि-मुनियों के पास पहुंचे और सारी कहानी विस्तार से कह सुनाई। उनकी कहानी सुनकर सभी ऋषि-मुनि आश्चर्यचकित रह गए। साथ ही सभी के संदेह दूर हुए। इस घटना के बाद से ही वे भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानकर उन्हें पूजने लगे यानी वे सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि त्रिदेवों में भगवान विष्णु ही सर्वश्रेष्ठ हैं।

(भगवान विष्णु का निराकार रूप कहे जाने वाले शालिग्राम को पूजने से घर में सुख-समृद्धि आती है। इसमें वातावरण में मौजूद सारी नकारात्मक ऊर्जा को अपने समाहित करने और उसके बदले में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाने की अद्भुत क्षमता होती है। ध्यान रहे कि वह शालिग्राम असली होना चाहिए।  यदि आप Original Shaligram खरीदने के इच्छुक है तो prabhubhakti.in से आज ही Online order करें।)

दुर्गियाना मंदिर (Durgiana Temple) : अमृतसर में स्थित माँ दुर्गा को समर्पित दुर्गियाना मंदिर का इतिहास

दुर्गियाना मंदिर कहाँ है? ( Durgiyana Mandir kahan hai? )

दुर्गियाना मंदिर (Durgiana Mandir) पंजाब के अमृतसर (Amritsar) प्रान्त में लोहगढ़ के पास मौजूद एक बहुत ही लोकप्रिय मंदिर है। जिसे लक्ष्मीनारायण मंदिर, दुर्गा तीर्थ और शीतला मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर का नाम दुर्गियाना इसलिए रखा गया क्योंकि यह मंदिर देवी दुर्गा को समर्पित है। देवी दुर्गा पार्वती का विशाल और विकराल रूप है जिनका जन्म राक्षसों और असुरों के सर्वनाश के लिए हुआ था।

अमृतसर में दुर्गियाना मंदिर का निर्माण किसने करवाया? ( Who built Durgiana Temple in Amritsar? )

दुर्गा के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक दुर्गियाना मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण 16वीं शताब्दी में किया गया और इसका पुनर्निर्माण 20वीं शताब्दी यानी साल 1921 में गुरु हरसाई मल कपूर द्वारा एकत्रित किये गए धन से हुआ था। सबसे ख़ास बात यह कि इसके स्थापत्य की नींव गंगा दशमी के दिन साल 1925 में प्रसिद्ध समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी पंडित मदन मोहन मालवीय द्वारा रखी गई।

दुर्गियाना मंदिर की वास्तुकला (Architect of Durgiana Temple in hindi)

दुर्गियाना मंदिर की वास्तुकला (Durgiana mandir ki vastukala) अमृतसर के सर्वप्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर (Golden Temple) की तर्ज पर आधारित है। मंदिर में कांगड़ा शैली की चित्रकला और शीशे का अद्भुत कार्य सभी को अपनी ओर आकर्षित कर देने वाला है। मंदिर के विशाल दरवाजे चांदी के और दीवारें संगमरमर की बनी हुई हैं। चांदी की नक्काशी के कारण इसे रजत या सिल्वर मंदिर भी कहते हैं। दुर्गियाना मंदिर का निर्माण झील के बिल्कुल बीचों बीच करवाया गया है। इसके क्षेत्रफल की बात करें तो यह 160 मीटर x 130 मीटर के करीब है। यहाँ की रंगीन लाइट रात्रि के समय इस मंदिर की ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा देती हैं। 
 
मंदिर की विशेषताएं : 

यहाँ मंदिर में सबसे पहले प्रवेश करते ही एक अखंड प्रज्वलित दिखाई देगी। इस स्थान पर दुर्गा के अन्य रूप कहे जाने वाले शीतला माता की पूजा-अर्चना की जाती है। इधर परिसर में माता सीता और हनुमान के मंदिर भी है। इसी के साथ लक्ष्मी नारायण मंदिर सरोवर के ठीक मध्य में दिखाई देगा जिसकी छतरी और गुम्बद। आपको यह भी बता दें कि मंदिर तक पहुँच सुलभ बनाने के लिए एक पुल भी बनाया गया है।   

दुर्गियाना मंदिर तक कैसे पहुंचे? (How to reach Durgiana Temple?)

दुर्गियाना मंदिर अमृतसर में अवस्थित ह और अमृतसर रेलवे स्टेशन से इसकी दूरी लगभग डेढ़ किलोमीटर है। वहीँ हवाई यात्रा की बात करें तो अमृतसर का एयरपोर्ट राजा सांसी एयरपोर्ट है और यह भारत के सभी प्रमुख शहरों से संपर्क है। यदि आप सड़क मार्ग से जाना चाहते हैं तो अमृतसर नेशनल हाइवे 1 राजधानी दिल्ली और अमृतसर को आपस में जोड़ता है।

( भगवान शिव की पत्नी देवी पार्वती के विशाल दुर्गा रूप का जन्म अच्छाई पर बुराई की जीत के लिए हुआ था। जो भी देवी दुर्गा की पूजा सच्चे मन से करता है उन्हें देवी सभी बुरी शक्तियों से बचाती है। यदि आप अपने शत्रुओं से परेशान है, घर में नकरात्मक ऊर्जा से गृह कलेश हो रहे हैं तो आपको Durga Kavach अवश्य ही धारण करना चाहिए।। )

Brihaspativar Vrat : बृहस्पतिवार को व्रत करने का महत्व और उससे जुड़ी पौराणिक कथा

बृहस्पतिवार व्रत का महत्व ( Brihaspativar Vrat ka mahatva )

हिन्दू धर्म में सभी दिन किसी न किसी देवता या देवी को समर्पित होते हैं। इसी तरह गुरूवार (Guruwar)  का दिन भगवान विष्णु (Bhagwan Vishnu) के लिए विशेष माना जाता है। इस दिन विष्णु जी (Vishnu Ji) की पूजा करने से कुंडली में मौजूद बृहस्पति ( के सारे दोष समाप्त हो जाते हैं। बृहस्पतिवार (brihaspativar) के दिन व्रत रखने से निः संतान को पुत्र की प्राप्ति होती है, निर्धन को धन की प्राप्ति होती है और परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है। चलिए जानते है क्या है brihaspativar ki katha. 

बृहस्पतिवार व्रत कथा (Brihaspativar Vrat Katha)

प्राचीन समय में एक प्रतापी राजा रहा करता था जो हर गुरूवार (Guruwar) को व्रत रख खूब दान-पुण्य करता था, गरीबों को खाना खिलाता था। राजा के इस दान-पुण्य वाले व्यवहार से उनकी पत्नी को बहुत परेशानी होती थी। उसे न तो व्रत करना पसंद था और न ही किसी को दान देना। जब राजा एक बार शिकार के लिए वन की ओर चला गया तो उसी दौरान गुरु बृहस्पति देव (Brihaspati Dev) राजा के द्वार पर भिक्षा मांगने आये।

साधू को भिक्षा मांगते देख रानी बोली हे! साधु महाराज मैं इस दान-पुण्य से बहुत तंग आ चुकी हूँ। कृपया कोई ऐसा उपाय मुझे बताएं कि घर में रखा सारा धन किसी तरह से समाप्त हो जाए। यदि ऐसा हो जाएगा तो मुझे बहुत संतुष्टि मिलेगी।   
रानी के मुख से इस तरह की बातें सुन बृहस्पति देव (Brihaspati Dev) बोले कि तुम बहुत विचित्र हो। भला कोई धन-सम्पत्ति और संतान की अनिच्छा रखता है? सभी के मन में इसे पाने की लालसा रहती है। तुम्हारे पास जो धन है तो उसका प्रयोग शुभ कार्यों में करो, किसी कुंवारी कन्या का विवाह करवाओ, बाग़-बगीचे बनवाओ, विद्यालयों का निर्माण करवाओ, गरीबों को दान करो। लेकिन फिर भी यदि तुम ऐसा चाहती हो कि घर में रखा सारा धन समाप्त या नष्ट हो जाए तो मेरे कहे अनुसार इस उपाय का पालन करो।

बृहस्पतिदेव (Brihaspati Dev) आगे बोले कि बृहस्पतिवार को तुम अपना घर गोबर से लीपो, केशों को पीली मिट्टी से धोना और फिर स्नान करना, राजा से हजामत बनाने के लिए कहना, भोजन में मांस-मदिरा का प्रयोग करना, कपड़ों को धोने के लिए धोबी को देना। ये सभी कार्य लगातार सात बृहस्पतिवार को करने के बाद तुम्हारा सारा धन शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा और तुम्हें संतोष होगा। रानी को ये सभी उपाय बताकर साधु के भेष में आये गुरु बृहस्पतिदेव अंतर्ध्यान हो गए।  
रानी ने साधु द्वारा बताये गए सभी उपायों का हर बृहस्पतिवार (Brihaspativar) को पालन किया। देखते ही देखते सारा धन नष्ट होने लगा और तीसरा बृहस्पतिवार आते ही वह पूरी तरह समाप्त हो गया। अब राजा के परिवार की दशा बिगड़ती गई और वे भोजन तक के लिए तरसने लगे। 

यह सब देख राजा ने रानी से कहा कि हे! रानी तुम यहीं ठहरना मैं यहाँ से दूर दूसरे देश की ओर जाता हूँ। यहाँ पर एक राजा हूँ और सब मुझे जानते हैं जिस कारण मैं कोई छोटा-मोटा कार्य नहीं कर सकता हूँ। रानी को यह सब कहकर राजा दूर दूसरे प्रदेश को चला गया।

राजा दूर एक जंगल में पहुंचा जहाँ वह जंगल की लकड़ी को काटकर, उस लकड़ी को शहर में बेचकर अपना जीवन व्यतीत करने लगा। परन्तु राजा के दूसरे देश चले जाने से रानी और दासी दुःखी रहने लगे। स्थिति इतनी बदतर हो गई कि रानी को सात दिन तक भोजन नसीब न हुआ। रानी ने अपनी दासी से कहा कि यहाँ पास ही के नगर में मेरी एक छोटी बहन रहा करती है। तू उसके पास जा और थोड़ा अनाज ले आ जिससे थोड़े दिन का गुजारा चल सके।  

दासी पास के नगर में रानी की बहन के घर पहुंची। उसा दिन बृहस्पतिवार (Brihaspativar) था और रानी की बहन ने बृहस्पतिवार का व्रत रखा हुआ था।  जब दासी वहां पहुंची तो उस समय रानी की बहन बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। जब दासी ने रानी की बहन को रानी की दशा बताई तो उसकी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया। उत्तर न मिलने के कारण दासी दुःखी हुई और सारा हाल जाकर रानी को कह सुनाया। दासी की बात सुन रानी ने अपने भाग्य को कोसा।

दूसरी तरफ रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई और मैंने कोई उत्तर तक नहीं दिया।  मेरे इस व्यवहार से वे बहुत दुखी हुई होंगी। इसलिए वे अपनी पूजा खत्म कर सीधे अपनी बहन के घर पहुंची और बोली हे! बहन जिस समय दासी आई थी तब मैं बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी। जिस कारण मैं कोई उत्तर नहीं दे पाई, कहो दासी को तुमने मेरे पास क्यों भेजा था?

रानी ने अपना सात दिन से कुछ न खाने का सारा हाल बहन को सुनाया। यह सुन रानी की बहन बोली कि तुम्हारे घर में जरूर अनाज होगा। देखो एक बार क्या पता अनाज घर में मिल जाए। इसपर रानी ने अपने घर में देखा तो उसे अनाज से भरा हुआ घड़ा मिला। यह देख उसे प्रसन्नता के साथ ही बहुत आश्चर्य हुआ। इस प्रकार का चमत्कार देख दासी ने रानी से कहा कि जब हमें भोजन नहीं मिलता तब भी तो हम भूखे रहते हैं। क्यों न हम व्रत का पालन करें।

दासी की बातें सुनकर रानी ने अपनी बहन से बृहसपतिवार (Brihaspativar) के व्रत का पालन करने की सारी विधि के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलाएं, इसके साथ व्रत कथा सुनें और पीला भोजन ही करें। इससे वृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं। बृहस्पतिवार को व्रत करने से तुम्हारे सारे दुःख समाप्त हो जाएंगे और मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी। व्रत और पूजा विधि बताकर रानी की बहन अपने घर को लौट गई।

रानी और दासी ने अपनी बहन के कहे वैसा ही किया और बृहस्पतिवार के दिन व्रत का पालन किया। परन्तु अब दोनों की चिंता कुछ और थी कि पीला भोजन कहाँ से लाया जाये। पीला भोजन न मिल पाने के कारण वे दुःखी हो गईं लेकिन बृहस्पतिदेव रानी से बहुत प्रसन्न थे क्योंकि उन्होंने गुरूवार के व्रत का पालन किया था। इसलिए वे एक साधारण व्यक्ति के भेष धारण कर पीला भोजन दे गए जिसे खाकर दोनों ने अपना व्रत पूर्ण किया।   

हर बृहस्पतिवार व्रत रखने से बृहस्पतिदेव प्रसन्न हुए और रानी की आर्थिक सुधरने लगी। अपनी आर्थिक स्थिति सुधरते देख रानी को फिर से आलस आने लगा और वह फिर से अपने पुराने वाले हाल पर आने लगी। रानी का आलस्य देख उसकी दासी ने समझाने के प्रयास किया। 

पहले भी तुम्हें दान-पुण्य से तकलीफ थी और उससे छुटकारा पाने के लिए धन को नष्ट करने का प्रयास किया।  उसके बाद के हालात तो तुम अपने जानती ही हो। अब ये आलस्य को तुम्हें त्यागना पड़ेगा तभी जाकर सुख-समृद्धि हासिल होगी। इस तरह रानी हर बृहस्पतिवार को व्रत का पालन करने लगी। ये थी brihaspati vrat katha in hindi जिसे सुनने या पढ़ने से भक्तजनों का उद्धार होता है। 

(बृहस्पतिवार को तुलसी माला से भगवान् विष्णु के मंत्र का जाप करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है यदि आप Original Tulsi Mala खरीदने के इच्छुक हैं तो prabhubhakti.in इसे Online Order कर सकते हैं।

हर मुश्किल का डटकर सामना करने वाले हनुमान जब एक तपस्वी से हारे

हनुमान जी का हिन्दू धर्म में महत्व ( Hanuman Ji ka hindu dharm me mahatva )

प्रभु श्री राम (ShreeRam) के परमभक्त हनुमान जी (Hanuman Ji) कभी किसी से नहीं हारे। उन्होंने हर मुश्किल का डटकर सामना किया और जीत भी हासिल की। हनुमान जी ने प्रभु श्री राम के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर दी। उन्होंने कई युद्ध किये तथा उन भीषण युद्धों में जीत भी प्राप्त की। हनुमान जी अपने भक्तों की भी हर प्रकार के संकट से रक्षा करते हैं। तभी तो उन्हें संकटमोचक के नाम से भी बुलाया जाता है।

वाल्मीकि रामायण (Valmiki Ramayan) में प्रभु श्री राम और हनुमान जी के संबंध और उनके कार्यों का बड़ी ही ख़ूबसूरती से वर्णन किया गया है। रामायण में बताया गया है कि कैसे हनुमान जी ने अपने प्रभु की हर संभव सेवा की तथा सभी कार्य भी पूर्ण किये।

हनुमान जी (Lord Hanuman) के पराक्रम की गाथा आप सभी के मुख से सुन ही सकते हैं सभी कहते हैं कि वे कभी हारे नहीं, उन्होंने हर परिस्थिति को एक सकारात्मक दृष्टिकोण से संभाला। उनकी वीरता का आकलन आप इस बात से कर सकते हैं कि उन्होंने महाभारत के वीर योद्धा अर्जुन और भीम, न्याय देवता शनिदेव तथा बालि तक को पराजित किया है। परन्तु क्या आपको मालूम है हनुमान जी भी किसी से हारे थे? आज की इस कहानी में हम आपको हनुमान जी के एक रामभक्त तपस्वी से हार की कथा बताएंगे।   

हनुमान और मच्छिंद्रनाथ की कहानी (Hanuman aur machindranath ki kahani)

एक मच्छिंद्रनाथ (Machindranath) नामक तपस्वी हुआ करते थे जो प्रभु श्री राम के परमभक्त थे। मच्छिंद्रनाथ तपस्वी जब रामेश्वरम में पधारे तो वे रामेश्वर सेतु (Rameshwar Setu) को देखकर भाव विभोर हो उठे।  इसके बाद उन्होंने प्रभु श्री राम की भक्ति का निश्चय किया और भक्ति में लीन होते हुए वे समुद्र में स्नान करने लगे।  

वानर भेष में वहां घूम रहे हनुमान जी ने जैसे ही तपस्वी को देखा वे उनकी परीक्षा लेने के लिए आगे बढ़े। हनुमान जी ने योगी मच्छिंद्रनाथ (Yogi Machindranath) की परीक्षा लेना शुरू किया। उस स्थान पर जहाँ तपस्वी भक्ति में लीन था अचानक तेज़ वर्षा होने लगी। फिर वानर भेष में घूम रहे हनुमान जी वहां मौजूद पहाड़ पर वार कर एक गुफा बनाने लगे।  

हनुमान जी का गुफा बनाने के उद्देश्य था तपस्वी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना और भक्ति में अड़चन डालना। जैसा हनुमान जी ने चाहा था वैसा ही हुआ और तपस्वी का ध्यान हनुमान जी पर पड़ा। तपस्वी मच्छिंद्रनाथ ने कहा कि हे! वानर तुम मूर्खता कर रहे हो। जब हमें प्यास लगती है उसी वक़्त थोड़ी न हम कुंआ खोदना शुरू करते हैं। तुम्हें पहले ही अपने रहने के लिए कोई प्रबंध करना चाहिए था।

हनुमान और मच्छिंद्रनाथ का युद्ध (Hanuman aur Machindranath ka yuddh)

मच्छिंद्रनाथ की बात सुनकर हनुमान जी बोले कि वैसे तो इस बात से सभी परिचित हैं कि प्रभु श्री राम और हनुमान से बड़ा योद्धा कोई नहीं पर  कुछ समय तक मैंने उनकी सेवा की थी जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे अपनी शक्ति का एक प्रतिशत मुझे दे दिया है। यदि आपके पास इतना साहस है तो मुझे हराकर दिखाएं। ऐसा करने के बाद ही मैं मानूंगा कि आप में तपोबल है और आप समर्थ हैं वरना खुद को एक सिद्ध योगी कहना बंद कर दें।   
 
मच्छिंद्रनाथ (Machindranath) ने हनुमान की चुनौती स्वीकार की और युद्ध करना शुरू कर दिया। हनुमान जी ने युद्ध शुरु होते ही मच्छिंद्रनाथ पर 7 बड़े पर्वत फेंके परन्तु मच्छिंद्रनाथ ने उन पर्वतों को अपनी शक्ति के बल से उसके मूल स्थान पर दोबारा भेज दिया।  यह दृश्य देखते ही हनुमान जी क्रोध से आगबबूला हो उठे।

इसके बाद हनुमान जी ने वहां के सबसे बड़े पर्वत को उठाकर मच्छिंद्रनाथ (Machindranath) पर फेंकने के लिए उठा लिया। जिसे देखते ही मच्छिंद्रनाथ ने समुद्र के जल की कुछ बूंदे ली और उन बूंदों को अपने हाथ में लेकर उसे वाताकर्षण मंत्र से सिद्ध किया। तत्पश्चात जल की उन बूंदों को हनुमान जी के ऊपर फेंक दिया।

वे सिद्ध की गई बूंदे जैसे ही हनुमान के शरीर पर पड़ीं उनका शरीर स्थिर अवस्था में चला गया। हनुमान जी के शरीर न कोई भी हलचल करनी बंद कर दी। कुछ क्षणों के लिए हनुमान जी की शक्ति भी जाती रही। अपने पुत्र को कष्ट में देखकर वहां वायुदेव प्रकट हुए और मच्छिंद्रनाथ से   हनुमान जी को कष्ट मुक्त करने की प्रार्थना की।

उनकी प्रार्थना सुन हनुमान जी को उन्होंने मुक्त कर दिया। इसके बाद हनुमान जी ने तपस्वी से कहा कि हे! मच्छिंद्रनाथ आप स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं। मुझसे भूल हुई कि मैंने आपको युद्ध के लिए ललकारा। कृपया मुझे मेरी इस भूल के लिए क्षमा करें। यह सुन मच्छिंद्रनाथ ने उन्हें माफ़ कर दिया।

(प्रभु श्री राम के परमभक्त संकटमोचक हनुमान भक्तों के सभी कष्ट दूर करते हैं।  यदि आप भूत-प्रेत के साये से परेशान हैं, किसी गंभीर बीमारी से जूझ  रहे हैं तो Ashta Siddh Balaji Kavach को घर में स्थापित करें।  इस कवच में समाहित अलौकिक शक्तियां हनुमान जी का आशीर्वाद आपको प्रदान करेंगी और सभी समस्याओं से छुटकारा शीघ्र ही मिल जाएगा।)

लिंगराज मंदिर(Lingaraj Mandir) : प्राचीन मंदिरों में शामिल इस भव्य मंदिर का इतिहास और पौराणिक कथा

लिंगराज मंदिर का इतिहास(Lingaraj Temple History)

भारत एक ओडिशा राज्य की राजधानी कही जाने वाले भुवनेश्वर प्रान्त में लिंगराज मंदिर अवस्थित है। इसे भुवनेश्वर प्रान्त के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है। बता दें कि यह मंदिर त्रिभुवनेश्वर यानी भगवान् शिव को समर्पित है। भगवान् शिव के त्रिभुवनेश्वर रूप से तात्पर्य है तींनों लोकों का स्वामी।

लिंगराज मंदिर का निर्माण कब और किसने करवाया? ( Who built Lingaraj Temple? )

अभी जो मंदिर वर्तमान में मौजूद है वह 12 वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था परन्तु इस मंदिर में मौजूद कुछ अवशेष 1400 वर्षों से भी प्राचीन हैं। जिस कारण इस मंदिर का उल्लेख हमें छठी शताब्दी में भी मिलता है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सोमवंश के राजा ययाति प्रथम के द्वारा करवाया गया था।

लिंगराज मंदिर की कहानी ( Lingaraj Temple Story in hindi ) :  

लिंगराज मंदिर के बारे में ऐसी कथा प्रचलित है कि इसी स्थान पर ‘लिट्टी’ तथा ‘वसा’ नाम के दो राक्षसों का वध किया गया था वो भी देवी पार्वती के द्वारा। राक्षसों से युद्ध के पश्चात देवी पार्वती को प्यास लगती है। इसके लिए भगवान शिव ने एक कूप बनाया और सभी पवित्र नदियों को उस कूप में योगदान के लिए बुलाया। जिसे अब बिंदुसागर सरोवर के नाम से जाना जाता है। इसी बिंदुसागर के निकट यह विशाल लिंगराज मंदिर अवस्थित है। बताते चलें कि यह स्थान शैव संप्रदाय के लोगों का एक मुख्य केंद्र रहा है।

कहने को यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है पर आपको जानकार हैरानी होगी कि इस मंदिर का आधा भाग शिव जी का और आधा भाग विष्णु जी का है। यानी नीचे के भाग में भगवान् शिव निवास करते हैं और ऊपर का हिस्सा भगवान विष्णु को समर्पित है क्योंकि यहाँ विष्णु जी शालिग्राम के रूप में विराजमान है।    

लिंगराज मंदिर स्थापत्य कला ( Lingaraj Temple Architecture )

लिंगराज मंदिर को कलिंग और उड़िया शैली में निर्मित किया गया है। बलुआ पत्थरों से बने इस लिंगराज मंदिर के ऊपरी भाग पर उल्टी घंटी और कलश स्थापित है। जो सभी के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इस मंदिर के ऊपर वाले हिस्से को पिरामिड के आकार का रूप दिया गया है।

यहाँ पर जो शिवलिंग स्थापित है उसकी खासियत यह है कि वह करीब आठ फ़ीट मोटा और एक फीट ऊँचा ग्रेनाइट से निर्मित स्वयंभू शिवलिंग है। इस शिवलिंग के बारे में ऐसी मान्यता है कि भारत में जो 12 ज्योतिर्लिंग पाए जाते है उन सभी का इस शिवलिंग में समाहित है तभी तो इसे लिंगराज नाम दिया गया है।    

मंदिर कुल चार भागों में बंटा हुआ है जिसमें पहला भाग है – गर्भ गृह, दूसरा भाग है – यज्ञ शैलम, तीसरा भोगमंडप और चौथा भाग नाट्यशाला। यहाँ आने वाले भक्तजन सबसे पहले सर्वप्रथम बिन्दुसरोवर में स्नान करते हैं उसके बाद वे अनंत वासुदेव के दर्शन करते हैं। फिर गणेश पूजा होती है और गोपालन देवी के दर्शन किये जाते है। इसके पश्चात भगवान् शिव की सवारी नंदी के दर्शन होते हैं और अंत में लिंगराज महाराज के दर्शन किये जाते हैं।  

लिंगराज मंदिर कैसे पहुंचे? ( How to reach Lingaraj Temple? )

लिंगराज मंदिर ओडिशा के भुवनेश्वर शहर में है जो इस राज्य की राजधानी है और लगभग भारत के सभी शहरों से सम्पर्क में है। यहाँ तक पहुँचने के लिए रेल, सड़क या हवाई मार्ग तीनों में से किसी का भी प्रयोग किया जा सकता है। इस मंदिर के सबसे समीप Lingaraj Temple Road Station है जबकि भुवनेश्वर एयरपोर्ट से इसकी दूरी 5 किलोमीटर है ।

( भगवान शिव के सबसे पवित्र शिवलिंग में पारद शिवलिंग भी माना जाता है। जो घर के दूषित वातावरण यानी नकारात्मक ऊर्जाओं को समाप्त करता है। पारद शिवलिंग को घर में स्थापित कर उसकी नियमित रूप से यदि पूजा की जाए तो व्यक्ति को सुख-शांति की प्राप्ति होती है और गृह कलेश आदि से मुक्ति मिलती है। इसे खरीदने से पहले यह जरूर जान लें कि वह पारद शिवलिंग असली है या नहीं।  यदि आप Original Parad Shivling खरीदने के इच्छुक हैं तो इसे prabhubhakti.in से Online Order करवा सकते है। )

आइये जानते हैं हर मांगलिक कार्य में प्रयोग में लाये जाने वाले नारियल की उत्पत्ति कैसे हुई?

नारियल (Nariyal) एक ऐसा उपयोगी फल है जिसे खाने में भी प्रयोग में लाया जाता है, एक औषधि के रूप में भी यह रामबाण इलाज है और इसके पानी को भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म में लगभग सभी मांगलिक कार्यों में इसके प्रयोग का अपना अलग महत्व है। श्रीफल (Shri Phal) के नाम से जाना जाने वाला यह फल त्रीदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक है।

दूसरे शब्दों में कहें तो नारियल (Nariyal) एक बेहद उपयोगी फल है जो भारत के तटीय क्षेत्र जैसे- गोवा, केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में पाया जाता है। बताते चलें कि बांग्ला में इसे नारिकेल के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन आज हम नारियल के औषधीय गुणों पर प्रकाश नहीं डालेंगे बल्कि उसके धार्मिक महत्व की चर्चा करेंगे। साथ ही इस बात का भी उल्लेख करेंगे कि आखिर नारियल की उत्पत्ति कैसे हुई (nariyal ki utpatti kaise hui)।  

पौराणिक कथा कैसे हुआ नारियल की उत्पत्ति?

नारियल की उत्पत्ति(nariyal ki utpatti) से जुड़ी पौराणिक कथा कहती है कि नारियल का धरती पर अवतरण ऋषि विश्वामित्र द्वारा किया गया था। प्राचीन समय में बहुत ही प्रतापी राजा सत्यव्रत हुआ करते थे। राजा सत्यावर्ती का ईश्वर में पूरी तरह से विश्वास था। 

उनके पास किसी भी तरह की कमी नहीं थी फिर चाहे वह धन-सम्पदा हो, वैभव हो या मान-प्रतिष्ठा। सब कुछ होने के बावजूद राजा के मन में एक ऐसी इच्छा थी जिसे वह किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहते थे।

राजा की इच्छा थी कि वे पृथ्वीलोक से स्वर्गलोक के दर्शन करें। स्वर्ग के बारे में कही जाने वाली बातें और वहां की सुंदरता राजा सत्यव्रत को अपनी ओर आकर्षित करती थी। परन्तु स्वर्गलोक तक जाने का मार्ग उन्हें ज्ञात नहीं था।  

एक बार जब ऋषि विश्वामित्र तपस्या करने के उद्देश्य से अपने घर से बहुत दूर निकल गए और लम्बे समय तक अपने क्षेत्र नहीं पहुंचे तो इसका परिणाम यह हुआ कि वहां सूखा पड़ गया। उनका परिवार भी भूखा-प्यासा भटक रहा था। मुश्किल के इस कठिन दौर में राजा सत्यव्रत ने उनके परिवार की सहायता की।

जब विश्वामित्र तपस्या कर अपने क्षेत्र को लौटे तो उनके परिवार ने राजा द्वारा किये गए उपकार के बारे में ऋषि को कह सुनाया। वे अपने परिवार की बात सुनकर इतने अधिक प्रभावित हुए कि राजा सत्यव्रत के दरबार उन्हें आशीर्वाद देने पहुंचे। दरबार में पहुँच ऋषि विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत को आभार प्रकट किया।

राजा ने आभार स्वीकार कर ऋषि को वर देने के लिए कहा।  ऋषि विश्वामित्र ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। यह सुन राजा सत्यव्रत ने उनसे कहा कि वे स्वर्गलोक जाना चाहते हैं परन्तु इसके लिए उन्हें कोई मार्ग नहीं पता। इसलिए क्या वे स्वर्गलोक पहुँचने का मार्ग बता सकते हैं? इस पर ऋषि विश्वामित्र ने थोड़ा सोचा और फिर एक रास्ता तैयार किया।  

राजा बहुत खुश हुआ और ऋषि द्वारा तैयार किये गए मार्ग पर आगे बढ़ने लगा। जैसे ही इंद्र देव ने राजा को आते देखा उन्होंने राजा को नीचे की तरफ धकेल दिया।  धरती पर गिरते ही राजा ने दुःखी मन से विश्वामित्र को इंद्र देव की हरकत के बारे में बताया। देवता द्वारा इस तरह का व्यवहार किये जाने से ऋषि विश्वामित्र बहुत क्रोधित हुए।  

इसके बाद ऋषि विश्वामित्र ने राजा को स्वर्गलोक भेजने के लिए देवताओं के साथ सलाह-मशविरा किया और हल निकाला।  हल के अनुसार राजा के लिए अलग से स्वर्गलोक का निर्माण करवाया जाना था जो पृथ्वीलोक और असली स्वर्गलोक के मध्य में होना था। इस मध्यस्था से न तो देवी-देवताओं को कोई परेशानी थी और न ही राजा को कोई परेशानी थी।  
इस हल के साथ ही ऋषि विश्वामित्र को एक चिंता घेरे हुए थी कि कहीं हवा के झोंके से मध्य का स्वर्गलोक डगमगा न जाए और राजा फिर से धरती पर न गिर पड़े।  इसके लिए उन्होंने नए स्वर्गलोक के नीचे एक खम्बा बनाया। तभी से माना जाता है कि यही खम्बा आगे चलकर पेड़ के मोटे तने के रूप में परिवर्तित हो गया तथा राजा सत्यव्रत का सर एक फल बन गया। इसी पेड़ को तने को आज नारियल का पेड़ और राजा के सिर को नारियल कहा जाता है।

देवर्षि नारद (Devarshi Narad) के क्रोध का शिकार हुए थे विष्णु जी फिर झेलना पड़ा श्राप, जानिए पूरी कहानी

मनुष्य का अहंकार उसके विनाश का एक बड़ा कारण बन सकता है क्योंकि अहंकार से ही हमारे भीतर कई ऐसे विचार जन्म लेते हैं जो बर्बादी की कगार पर ला खड़ा करते हैं। कलयुग में अहंकार शब्द बहुत ही सामान्य है परन्तु सतयुग में जब किसी देवी-देवता को अहंकार होता था तो तुरंत ही उन्हें कोई न कोई ऐसा सबक मिल जाता था जिससे भीतर पनपे अहंकार के गुण समाप्त हो जाते थे। ऐसी अनेकों पौराणिक कथाओं में से आज हम आपके लिए लेकर आएं हैं देवर्षि नारद (Devarshi Narad)  के अहंकार से जुड़ी एक कहानी।  

नारद मुनि के अहंकार की कहानी (Narad Muni Story)

देवर्षि नारद (Devarshi Narad) बहुत ही तेजस्वी और ज्ञानी थे।  भगवान् शिव ( Lord Shiva) की पत्नी पार्वती (Parvati) तो उनकी तारीफ़ करते नहीं थकती थीं। एक बार जब वे भगवान् शिव के सामने नारद मुनि (Narada Muni) की तारीफों के पुल बाँध रही थी। तब शिव जी ने उन्हें कहा कि किसी भी चीज का ज्ञान होना बहुत अच्छी बात है पर उस ज्ञान पर अहंकार होना उस ज्ञान के न होने के समान है।

यह सुन देवी पार्वती ने भगवान् शिव से यह बात कहने का कारण जानना चाहा। इसपर भगवान् शिव बोले कि एक बार देवर्षि नारद को अपने ज्ञान का अहंकार हो चला था। जब भगवान् विष्णु को यह बात पता चली तो वे अपने भक्त में अहंकार नहीं देख पाए और सबक सिखाने के लिए उतारू हो गए।

देवर्षि नारद एक बार हिमालय के पर्वत पर गुफा के समीप पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उस गुफा के निकट गंगा जी बह रही थीं, आस-पास खूब हरियाली थी। उस जगह का सुहावना माहौल देखकर उनका मन किया कि वे इसी स्थान पर विष्णु जी की तपस्या करें। इसके बाद उन्होंने वहीँ पर तपस्या करने का मन बना लिया और गहन तपस्या में लीन हो गए।

जैसे ही इंद्र देव (Indra Dev) को यह ज्ञात हुआ कि नारद मुनि तपस्या कर रहे हैं तो उन्हें अपने राज-पाठ और स्वर्ग को खोने का भय होने लगा। इसलिए उन्होंने मुनि की तपस्या भंग करने के लिए कई प्रयास किये। इसके लिए उन्होंने कामदेव (Kaamdev) की सहायता ली और नारद मुनि के पास भेज दिया।

कामदेव ने वहां पहुँच कर अपनी माया के जरिये वसंत ऋतू को उत्पन्न किया। वसंत ऋतू आते ही वहां हरे-भरे पेड़ पौधे उगने लगे, फूल खिलने लगे और कामाग्नि को भड़काने वाली सुगंधे भी आने लगी। इतना ही नहीं कई अप्सराएं भी वहां पर नृत्य करने लगी। पर अफसोस कामदेव की कोई भी माया सफल न हो पाई।

कामदेव को अपनी माया सफल होने से अधिक भय इस बात का था कि कहीं देवर्षि नारद (Narada) अब क्रोध में आकर उन्हें श्राप न दे डाले। जब Narad नारद मुनि अपनी तपस्या से उठे तो उन्होंने कामदेव को देखा पर उन्हें बिल्कुल भी क्रोध नहीं आया। कामदेव ने नारद मुनि से माफ़ी मांगी और वे वापिस अपने लोक की ओर चले गए।    

कामदेव के चले जाने के बाद देवर्षि नारद को अपने ऊपर अहंकार हो गया कि मैंने कामदेव को पराजित कर दिया। अपनी गाथा को सुनाने के लिए वे भगवान् शिव के पास पहुंचे और सारा हाल कह सुनाया। उनके बोलने की प्रवृति से भगवान् शिव तुरंत ही यह समझ गए कि ये सब अपने अहंकार में डूबकर कह रहे हैं।

भगवान् शिव ने सोचा कि विष्णु जी तक उनके भक्त के अहंकार में डूबने की बात पहुंची तो वे इसे सहन नहीं कर पाएंगे। इससे बचाव के लिए शिव नारद से बोले कि जो बात तुमने मुझे बताई है वह विष्णु के समक्ष मत कहना।  

अहंकार में डूबे देवर्षि नारद (Devarshi Narad) को शिव की यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने कामदेव की पराजय की गाथा विष्णु जी को भी कह सुनाई। सब बात कहने के बाद नारद वहां से चले गए। विष्णु जी को एक युक्ति सूझी उन्होंने अपनी माया से नारद के मार्ग में एक सुन्दर नगर को बनाया। 

उस खूबसूरत नगर में एक शीलनिधि नामक का राज था जिसकी सुन्दर विश्वमोहिनी नामक कन्या का स्वयंवर रचा जाना था। विश्वमोहिनी देवी लक्ष्मी (Devi Lakshmi) ही थीं। स्वयंवर के लिए कई प्रतिभाशाली राजा वहां पधारे हुए थे ताकि वे कन्या से विवाह कर पाए।  

देवर्षि नारद ने जैसे ही विश्वमोहिनी की ओर अपनी नज़र डाली वे उसकी तरफ उतना ही अधिक आकर्षित होते चले।उनके मन में कन्या से विवाह करने की इच्छा जागी। विवाह करने के लिए उन्होंने सोचा कि क्यों न मैं एक सुन्दर भेष धारण कर लूँ। खुद को एक सुन्दर युवक बनाने के लिए वे विष्णु जी पास पहुँचते हैं।

नारद (Narad) विष्णु जी से कहते हैं कि वे विश्वमोहिनी नामक कन्या से विवाह करना चाहते हैं इसलिए उन्हें एक सुन्दर युवक का रूप दिया जाए। विष्णु जी उनकी बात सुनकर मुस्काते हुए उन्हें एक वानर रूप दे देते हैं। नारद को लगता है वह बहुत सुन्दर लग रहे हैं इसलिए वे चल देते हैं विश्वमोहिनी से विवाह करने। विष्णु जी की यह लीला पास में वहां पर छिपे हुए दो शिव गण देख रहे थे।

अब नारद (Narad) विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुँचते हैं और उनके साथ दोनों शिव गण भी ब्राह्मण का रूप धारण कर पहुँचते हैं। स्वयं भगवान् विष्णु (Lord Vishnu) जो राजा का रूप धारण किये स्वयंवर में आये थे। स्वयंवर शुरू हुआ और विश्वमोहिनी नामक कन्या ने वरमाला राजा का रूप धारण किये विष्णु के गले में डाल दी। यह देख नारद को बहुत आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया। 

पास में खड़े वे दोनों ब्राह्मण बोले कि ज़रा खुद को दर्पण में तो निहारो। यह सुन नारद ने जल में अपना मुख निहारा तब उन्हें पता चला कि वे तो एक वानर रूप धारण किये हुए है। अपने वानर रूप को देख नारद को बहुत क्रोध आया और उन्होंने दोनों शिव गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दिया। कुछ देर बाद नारद (Narada) अपने असली रूप में आ चुके थे। उन्हें विष्णु जी पर बहुत गुस्सा आ रहा था अपने गुस्से को लेकर वे विष्णु जी के पास पहुँचते है। 

रामचरितमानस के बालकाण्ड में नारद अपने क्रोध को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं :

असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।  

स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहार।।  

अर्थ : असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो।

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई।

भलेहि मंद मंदेहि भल करहु। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहु।।  

अर्थ : तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छन्दता से) वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते।

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति अंशक मन सदा उछाहू।  

करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहुँ साधा।।  

अर्थ : सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यन्त निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुम को किसी ने ठीक नहीं किया था।  

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।

बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।

अर्थ : अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबर्दस्त आदमी से छेड़खानी की है। अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे।) जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है।   

कपि आकृति तुम्ह किन्ही हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।  

मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।

अर्थ : तुमने हमारा रूप बंदर का सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होंगे।  

इसके बाद श्रापित शिव गण माया से मुक्त नारद के पास पहुँच कर क्षमा याचना करते हैं। उनकी प्रार्थना को सुनकर कहते हैं कि तुम दोनों धरती पर रावण (Ravan) और कुम्भकर्ण (Kumbhakarna) के रूप में जन्म लोगे और प्रभु श्री राम (Prabhu Shri Ram) के हाथों मारे जाओगे।  इसके बाद ही तुम्हें श्राप से मुक्ति मिलेगी।   

(भगवान् विष्णु की पूजा करने वालों को तुलसी माला धारण करने या फिर तुलसी माला से जाप करना चाहिए। ऐसा करने से भगवान् विष्णु का आशीर्वाद सदैव जातकों पर बना रहेगा क्योंकि यह उनकी तुलसी सबसे प्रिय है। ध्यान रहे कि वह माला असली होनी चाहिए। Original Tulsi Mala आप prabhubhakti.in से Online Buy कर सकते हैं।)

           

साल 2022 की पहली पौष मास अमावस्या को जरूर करें ये काम

पौष मास का महत्व ( Paush Mahine ka Mahatva )

हिन्दू धर्म में हर माह कृष्ण पक्ष ( Krishna Paksha ) की अंतिम या पन्द्रवीं तिथि को अमावस्या ( Amavasya ) पड़ती है जिसका बहुत अधिक महत्व बताया गया है। अमावस्या के बारे में कहा जाता है कि यह पितरों को मोक्ष ( Moksha )प्रदान करती है। जिस कारण अमावस्या के दिन स्नान आदि करने के पश्चात पूजन और जप करना बहुत शुभ माना जाता है।

इन अमावस्या में भी पौष माह ( Paush Mahina ) की अमावस्या सबसे ख़ास होती है। पौष माह की अमावस्या शीघ्र और शुभ फल प्रदान करती है। इस माह में सूर्य देव की पूजा विशेष रूप से किये जाने का विधान है। नववर्ष 2022 में पौष माह की अमावस्या इस बार 2 जनवरी को पड़ रही है।   

पौष जिसे पूस का महीना कहा जाता है पितरों को समर्पित होता है। ऐसी मान्यता है कि इस माह में पितरों के लिए तर्पण और पिंडदान करने से उन्हें कहीं भटकना नहीं पड़ता है। सबसे ख़ास बात यह कि पिंडदान से वे सीधे बैकुंठ धाम में प्रवेश करते हैं।  

वैसे तो खरमास ( Kharmas ) के समय कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य करना शुभ नहीं माना जाता है परन्तु पौष माह में किया जाने वाला पूजा पाठ बहुत ही शुभ माना जाता है और पितरों की मुक्ति के लिए विशेष होता है।  

पौष महीने ( Paush Mahina ) में जरूर करें ये काम

1. अमावस्या के दिन श्री कृष्ण ( Shri Krishna ) की आराधना करने और भागवत गीता का पाठ करना बहुत ही शुभ माना जाता है।  

2. पीपल ( Pipal ) के वृक्ष की पूजा किये जाने का भी विशेष महत्व है। पीपल के वृक्ष पर रोज़ एक दीपक जरूर जलाएं।  

3. पितरों की सुख-शांति के लिए गरीब लोगों को दान करना चाहिए।  

4. अमावस्या के दिन प्रातःकाल स्नान कर पूजन करने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी।  

5. पितृ दोष ( Pitra Dosha ) से पीड़ित जातक इस माह की अमावस्या पर व्रत करें और दान-पुण्य भी अवश्य करें।  

6. अमावस्या पर तुलसी के पौधे की परिक्रमा करने से विष्णु जी प्रसन्न होते हैं।  

7. काल सर्प दोष ( Kaal Sarp Dosh ) से पीड़ित जातक अमावस्या पर पूजन कर व्रत का पालन करें।  

8. प्रातःकाल स्नान कर सूर्यदेव को अर्घ्य दें।  

( यदि आप पितृ दोष से पीड़ित हैं तो आपको भगवान् शिव से संबंधित Maha Mrityunjaya Kavach को धारण करने की सलाह दी जाती है।  साथ ही प्रतिदिन या फिर ख़ास तौर पर सोमवार के दिन महा मृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग पर जलाभिषेक करना चाहिए।  

पौष अमावस्या कब की है? ( Paush Amavasya kab ki hai? )

पौष अमावस्या 2022 मुहूर्त :

पौष अमावस्या तिथि : रविवार 2 जनवरी, 2022

पौष अमावस्या प्रारंभ : 2 जनवरी 03:43:56

पौष अमावस्या समाप्ति : 3 जनवरी 00:05:26

पौष मास की दूसरी अमावस्या मुहूर्त :

पौष अमावस्या तिथि : शुक्रवार 23 दिसंबर, 2022

पौष अमावस्या प्रारम्भ : 22 दिसंबर 19:15:44  

पौष अमावस्या समाप्ति : 23 दिसंबर 15:48:55

Jaap Benefits : मंत्र जाप के फायदे और जाप करने के विशेष नियम

हमारे शास्त्रों में अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने का एकमात्र उपाय जाप (Jaap) बताया गया है। किसी भी व्यक्ति का मन इतना चंचल होता है कि भले ही शरीर एक स्थान पर हो परन्तु मन देश-विदेशों की सैर तक कर आता है। भटकता हुआ यह मन हमें सकारत्मक अनुभव कराता है तो हमें दुःखी करने के लिए नकारात्मक विचारों की भी सुनामी सी ला देता है।

फिर इसे रोकने के लिए व्यक्ति अपने आप को व्यस्त रखने के प्रयास करता है। तरह-तरह के कामों में उलझ जाता है और अपनी परवाह किये बगैर खुद पर ज्यादतियां करना शुरू कर देता है। जबकि हमारे मन पर काबू पाने का सबसे सरल उपाय है जाप।

यदि व्यक्ति अपने रोजमर्रा के कामों से कुछ देर के लिए छुटकारा पाकर जाप करता है तो वह मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ और शांत स्वभाव का रहता है। चलिए जानते है जाप करने का महत्व, उसके लाभ और नियमों के बारे में।  

जाप का महत्व ( Jaap ka Mahatva )

जाप करने से व्यक्ति न केवल ईश्वर के निकट होना महसूस करता है बल्कि यह क्रिया हमें आत्म संतुष्टि और आत्मसंयम की दिशा में ले जाने का काम करती है। व्यक्ति अपने कामों में इतना उलझ जाता है कि खुद तक पहुँचने का मार्ग भी भूल जाता है। जाप की क्रिया हमें यह मार्ग तलाशने में सहायता करती है।

हिन्दू धर्म में मंत्र साधना (Mantra Sadhna) की बात की गई है वह सभी प्रकार की साधनाओं से ऊपर मानी गई है। इसके पीछे की वजह यह है कि मंत्र साधना में मंत्रो का लगातार उच्चारण बिना किसी के व्यवधान के करते रहना कोई आसान क्रिया नहीं मानी जाती है। शास्त्रों में तो यहाँ तक वर्णित है कि मंत्रो के जाप से जीवन की सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं।  

मंत्र जाप के फायदे ( Mantra Jaap ke fayde )

1. जप माला (Japa Mala) के 108 मनकों से जाप करना बहुत लाभदायक है क्योंकि यह मन की एकाग्र क्षमता को बढ़ाता है।  

2. व्यक्ति भीतर से स्वस्थ और शक्तिशाली महसूस करता है।  

3. सकारात्मक विचारों का मन-मस्तिष्क में अधिक विस्तार होता है।  

4. बुरी शक्तियों को हमारे आभामंडल से दूर रखने में जाप बहुत सहायक है।

5. चंचल मन शांत, निर्भीक और स्थिर स्वभाव का हो जाता है।

जाप कैसे करें? ( Jaap Kaise Kare? )

1. यदि आप अपने किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जाप कर रहे हैं तो उसके लिए कामना करें और फिर मंत्र का संकल्प ले।  

2. जाप करने से पहले स्नान करें और उसके बाद ही घर में स्वच्छ स्थान पर आसन बनाकर बैठे व जप करें।  

3. आसन पर बैठने की प्रक्रिया में बार-बार परिवर्तन न करें। एक ही तरीके से बैठकर जाप करना चाहिए।  

4. जाप करते समय अन्य सभी बातों पर बिल्कुल भी ध्यान न दें।  

5. मन्त्रों का उच्चारण जाप करते समय इस तरह किये जाये कि पास में बैठा आदमी भी वह समझ न सके और केवल होंठ हिले।  

6. जाप करते समय मंत्रो का तालमेल व्यक्ति की सांस से होना चाहिए। उदहारण के लिए यदि कोई मंत्र साँस छोड़ते समय बोल रहें हैं तो उसे उसी समय बोले।

7. Vishnu Mantra का जाप करते समय ध्यान रखें कि वह Original Tulsi Mala हो क्योंकि यह माला उन्हें सबसे प्रिय है।  

8. जाप करने के लिए माला को चुनना भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि Maha Shiv Mantra का जाप करना है तो उसके लिए Original Rudraksha Mala सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।  

9. माला जाप करने के लिए पूर्व की दिशा का ही चयन करें यानी मुख को पूर्व की दिशा में रखें।  

10. माला जाप करने के लिए निश्चित संख्या का होना बहुत जरुरी माना गया है।  

जाप में उँगलियों के प्रयोग का महत्व ( Jaap me ungliyo ke prayog ka mahatva )

जाप के लिए यदि अनामिका ऊँगली का प्रयोग किया जाए तो शुद्धता मिलती है। कनिष्ठा ऊँगली से जाप करने से गुणों के विकास में वृद्धि होती है। जबकि घर में सुख-समृद्धि के लिए जाप करना हो तो मध्यम ऊँगली से जाप करना चाहिए।  

जानिये आखिर क्यों शनि दोषों की समाप्ति के लिए की जाती है हनुमान जी की पूजा

हिन्दू धर्म में जहाँ एक तरफ हनुमान जी ( Hanuman Ji ) को संकटमोचक की संज्ञा दी गई है तो वहीँ शनि देव न्याय के देवता कहे गए है। व्यक्ति को उसके कर्मों के हिसाब से फल देने वाले शनिदेव ( Shani Dev ) का हनुमान जी से एक ख़ास संबंध है जिसके कारण जब भी किसी व्यक्ति पर शनि का प्रकोप हावी होता है तो उसे हनुमान जी की पूजा करने की सलाह दी जाती है। आइये जानते हैं आखिर हनुमान जी और शनिदेव में क्या संबंध है और क्यों उन्हें तेल चढ़ाने से दूर होते हैं सभी कष्ट।  

हनुमान जी और शनिदेव की कथा ( Hanuman ji aur Shani Dev ki Katha )

सम्पूर्ण सृष्टि को उनके कर्मों के हिसाब से न्याय देने वाले शनिदेव को अपनी शक्ति पर बहुत घमंड हो गया था। इस शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए वे हनुमान जी से युद्ध करने के लिए उनके पास पहुंचे। उन्होंने हनुमान जी को युद्ध करने के लिए ललकार लगाई। शनिदेव जब युद्ध के लिए उन्हें चुनौती दे रहे थे उस समय हनुमान जी प्रभु श्री राम की तपस्या में लीन थे। जिस कारण उन्होंने शनिदेव से उलटे पैर लौट जाने के लिए कहा।  

परन्तु शनिदेव अपनी बात पर अडिग रहे और बार-बार युद्ध के लिए ललकारते रहे। शनिदेव की इस ज़िद को देखकर हनुमान जी को बहुत क्रोध आया और उन्होंने अपने इस क्रोध के आवेग में आकर युद्ध के लिए हामी भर दी। आखिर शनि महाराज ने ललकार भी तो किसे लगाईं थी प्रभु श्री राम के परमभक्त हनुमान जी को।

इसके बाद जो हुआ वह तो सभी कल्पना कर ही सकते हैं। हनुमान जी के प्रहारों के आगे शनिदेव कुछ क्षण भी टिक न सके और घायल होकर गिर पड़े। शनिदेव ने इसके पश्चात संकटमोचक हनुमान जी से क्षमा याचना की।

भोले स्वभाव वाले हनुमान जी ने तुरंत शनिदेव को क्षमा कर दिया और उनके घावों को ठीक करने के लिए उसपर तेल लगाने लगे।  तेल लगाते ही शनिदेव के सभी घाव ठीक हो गए। अपने घाव ठीक होते देख शनिदेव बोले कि जो भी भक्तजन आपकी सच्चे मन से पूजा करेगा और मुझे तेल अर्पित करेगा उसके सारे दुःख समाप्त हो जाएंगे।  इसी के साथ शनिदेव ने आगे कहा कि उसे शनि दोष का भी सामना नहीं करना पड़ेगा।  

इससे संबंधित एक दूसरी कथा भी बहुत प्रचलित है। कहा जाता है कि शनिदेव को लंकाधिपति रावण ने अपनी कैद में रखा हुआ था। उनको रावण की कैद से मुक्ति दिलाने वाले हनुमान जी ही थे। जब हनुमान जी रावण ( Ravana ) के चंगुल से शनिदेव को बचाकर लाये तब उनके शरीर पर बहुत सारे घाव थे और उन्हें काफी दर्द का एहसास हो रहा था।

उन घावों को ठीक करने के उद्देश्य से संकटमोचक हनुमान जी ने तेल लगाया।  वह तेल लगाते ही शनिदेव बिलकुल स्वस्थ हो गए।  इसी के बाद से Hanuman Shani Dev की पूजा का प्रचलन शुरू हुआ तथा शनिदोषों ( shani dosha ) से मुक्ति पाने के लिए हनुमान जी की पूजा शनि को तेल चढ़ाने की प्रथा भी शुरू हुई।     

शनिवार को हनुमान पूजा कैसे करें?( Shanivar ko Hanuman pooja kaise kare? )

1. शनिवार के दिन सूर्योदय के समय स्नान करें और उसके बाद हनुमान के ‘श्री हनुमते नम:’ मंत्र का जाप 11 या 108 बार करें।  ऐसा करने से व्यक्ति को शनिदोषों से मुक्ति मिलती है।   

2. दूसरा उत्तम उपाय है Hanuman Chalisa Yantra रुपी लॉकेट को धारण करना। ऐसा करने से किसी भी प्रकार की बुरी शक्तियां जातक के निकट नहीं पहुँच सकती हैं।  

3. जातक चाहें तो 10 शनिवार को जल में सिन्दूर को मिलकर हनुमान जी को अर्पित करें। इससे हनुमान जी आप पर शनि के दुष्प्रभावों का खात्मा होगा।  

4. प्रत्येक शनिवार हनुमान जी की प्रतिमा के आगे केले का प्रसाद चढ़ाना चाहिए।  

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