सत्यभामा कौन थी? ( Satyabhama kon thi Or Who is Satyabhama? )
सत्यभामा श्री कृष्ण (Satyabhama Krishna) की 8 प्रमुख पत्नियों रुक्मणि, भद्रा, जाम्बवन्ती, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, लक्ष्मणा, सत्या में से एक जबकि कृष्ण की 3 महारानियों में प्रमुख थी। सत्यभामा अवंतिका जिसे वर्तमान में उज्जैन कहा जाता है के राजा सत्राजित की पुत्री थी। श्री कृष्ण और सत्यभामा के 10 पुत्र थे – श्रीभानु, सुभानु, भानु, वृहद्भानु, स्वरभानु, प्रभानु, चंद्रभानु, भानुमान, अतिभानु, और प्रतिभानु।
श्री कृष्ण सत्यभामा का विवाह कैसे हुआ? ( Shri Krishna Satyabhama ka vivah kaise hua? )
सत्यभामा ( Sathyabhama ) के पिता सत्राजित के पास एक चमत्कारिक मणि हुआ करती थी जिसके बारे में कहा जाता था कि वह स्वर्ण उत्पन्न करती है। एक बार सत्राजित का प्रसेन नामक भाई उस मणि को धारण कर शिकार के लिए निकल जाता है। जब काफी देर होने पर वह शिकार से वापिस नहीं लौटा तो सत्राजित को लगा कि श्री कृष्ण ने उसके भाई को मरकर वह मणि चुरा ली है।
राज्य में श्री कृष्णा को लेकर ऐसी ही बातें होने लगी। जब श्री कृष्ण को यह पता चला कि लोग उन्हें चोर समझ रहे हैं तो वे स्वयं प्रसेन को खोजने के लिए जंगल की ओर निकले। जब श्री कृष्ण जंगल में पहुंचे तो वे देखते है कि प्रसेन और उनका अश्व वह मृत पड़े हैं और वह मणि जिसे प्रसेन ने धारण किया हुआ था वह एक रीछ के पास है। वह रीछ रामभक्त जामवंत थे।
जामवंत और Sri Krishna के बीच भयंकर युद्ध हुआ और देखते ही देखते जामवंत पराजित होने की अवस्था में आ चुके थे। इसके लिए उन्होंने अपने प्रभु श्री राम का स्मरण किया। स्मरण करते ही श्री कृष्ण ने राम का रूप ले लिया। जामवंत ने जैसे ही श्री कृष्ण को राम अवतार में देखा वे अपने अश्रुओं को रोक नहीं पाए। क्षमा मांगते हुए उन्होंने उस मणि के साथ ही अपनी पुत्री जामवंती को भी श्री कृष्ण को सौंप दिया।
अब Sree Krishna उस मणि को लेकर राजा सत्राजित में पहुँचते हैं और उन्हें यह लौटा देते हैं। उस समय सत्राजित को अपनी सोच पर बहुत ग्लानि हुई कि उन्होंने श्री कृष्ण एक हत्यारा और चोर समझ लिया। इसपर सत्राजित ने श्री कृष्ण के सामने क्षमा मांगी और अपनी ग्लानि को दूर करने के लिए पुत्री सत्यभामा को श्री कृष्ण को सौंप दिया। इस तरह एक ग्लानि ने श्री कृष्ण और सत्यभामा विवाह ( Satyabhama Vivah ) करवाया।
राज्य में श्री कृष्णा को लेकर ऐसी ही बातें होने लगी। जब श्री कृष्ण को यह पता चला कि लोग उन्हें चोर समझ रहे हैं तो वे स्वयं प्रसेन को खोजने के लिए जंगल की ओर निकले। जब श्री कृष्ण जंगल में पहुंचे तो वे देखते है कि प्रसेन और उनका अश्व वह मृत पड़े हैं और वह मणि जिसे प्रसेन ने धारण किया हुआ था वह एक रीछ के पास है। वह रीछ रामभक्त जामवंत थे।
जामवंत और Sri Krishna के बीच भयंकर युद्ध हुआ और देखते ही देखते जामवंत पराजित होने की अवस्था में आ चुके थे। इसके लिए उन्होंने अपने प्रभु श्री राम का स्मरण किया। स्मरण करते ही श्री कृष्ण ने राम का रूप ले लिया। जामवंत ने जैसे ही श्री कृष्ण को राम अवतार में देखा वे अपने अश्रुओं को रोक नहीं पाए। क्षमा मांगते हुए उन्होंने उस मणि के साथ ही अपनी पुत्री जामवंती को भी श्री कृष्ण को सौंप दिया।
अब Sree Krishna उस मणि को लेकर राजा सत्राजित में पहुँचते हैं और उन्हें यह लौटा देते हैं। उस समय सत्राजित को अपनी सोच पर बहुत ग्लानि हुई कि उन्होंने श्री कृष्ण एक हत्यारा और चोर समझ लिया। इसपर सत्राजित ने श्री कृष्ण के सामने क्षमा मांगी और अपनी ग्लानि को दूर करने के लिए पुत्री सत्यभामा को श्री कृष्ण को सौंप दिया। इस तरह एक ग्लानि ने श्री कृष्ण और सत्यभामा विवाह ( Satyabhama Vivah ) करवाया।
सत्यभामा का घमंड कैसे टूटा? ( Satyabhama ka ghamand kaise tuta? )
अहंकार से जुड़ी Satyabhama story कुछ इस प्रकार है कि एक बार की बात है श्री कृष्ण द्वारिका नगरी में अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे। दोनों के निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी मौजूद थे जिनमें अत्यधिक तेज दिखाई पड़ रहा था। पास में बैठी सत्यभामा ने श्री कृष्ण बातों-बातों में सवाल किया कि हे प्रभु! जब आपने त्रेतायुग में राम अवतार लिया था तब अपनी पत्नी सीता थीं। क्या वे मुझसे भी अधिक सुन्दर थीं?
Shri Krishna Satyabhama की बातों से तुरंत यह समझ चुके थे कि उन्हें अपनी सुंदरता का अहंकार हो चला है। फिर पास में बैठे गरुड़ बोले हे! प्रभु क्या कोई मुझसे भी अधिक तीव्र उड़ सकता है? इसपर सुदर्शन चक्र कैसे चुप रहता, वह भी बोला कि प्रभु! मैंने तो आपको कितने ही युद्धों में विजय प्राप्त करवाई है। क्या भला कोई इस संसार में मुझसे अधिक शक्तिशाली है?
Shree Krishna तो स्वयं ही ईश्वर थे उन्हें यह भांप पाने में तनिक भी देर न लगी कि इन तीनों को खुदपर अहंकार हो गया है। अतः अब कृष्ण को तीनों का अहंकार तोड़ना था। श्री कृष्ण ने गरुड़ से कहा कि तुम हनुमान के पास जाओ और उनसे कहना कि उनके प्रभु श्री राम और माता सीता तुम्हारी प्रतीक्षा में रहा तक रहें हैं। इसके बाद श्री कृष्ण ने सत्यभामा को माता सीता के रूप में तैयार रहने को कहा और स्वयं उन्होंने राम का अवतार ले लिया। श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से मुख्य द्वार पर पहरा देने को कहा कि मेरी आज्ञा के बिना कोई महल में प्रवेश न कर पाए।
गरुड़ ने जाकर Hanuman जी को सन्देशा पहुँचाया और अपने साथ चलने को कहा। पर हनुमान जी ने कहा कि तुम आगे चलो मैं वहां पहुंचता हूँ। गरुड़ उस समय सोच रहा था कि ये वृद्ध वानर न जाने कब तक वहां पहुंचेगा। पर जब गरुड़ द्वारका में पहुंचा तो वह देखता है कि हनुमान जी तो उनसे पहले ही द्वारका पहुँच कर वहां प्रभु श्री राम के चरणों में बैठे हैं। इसपर गरुड़ को बहुत लज्जा महसूस हुई।
Lord Hanuman से श्री राम ने पूछा कि तुम महल में प्रवेश कैसे कर आये? क्या मुख्य द्वार पर तुम्हें किसी ने अंदर से रोका नहीं? इसपर हनुमान जी अपने मुँह से सुदर्शन चक्र को निकलकर कहते हैं कि मुझे अंदर आते समय सुदर्शन चक्र ने रखा था परन्तु मैंने इसे अपने मुख पर रख लिया। मुझे इसके लिए क्षमा करें। इस समय तक गरुड़ को अपनी तीव्र उड़ान का अहम और सुदर्शन चक्र को अपनी शक्ति का अहम समाप्त हो चुका था।
हनुमान जी ने आगे कहा कि हे प्रभु! आपने साथ माता सीता की जगह सिंहासन पर एक दासी क्यों विराजमान है? हनुमान के मुख से इस तरह के वचन सुन Lord Krishna की रानी सत्यभामा का घमंड जैसे चूर-चूर हो गया। हनुमान ने जब उन्हें सीता माता न समझकर दासी कहा तो सुन्दरता पर Satyabhama ka ahankar अब खत्म हो चुका था। इसके बाद तीनों ही प्रभु की लीला समझ गए और प्रभु के चरणों में झुक गए।
Shri Krishna Satyabhama की बातों से तुरंत यह समझ चुके थे कि उन्हें अपनी सुंदरता का अहंकार हो चला है। फिर पास में बैठे गरुड़ बोले हे! प्रभु क्या कोई मुझसे भी अधिक तीव्र उड़ सकता है? इसपर सुदर्शन चक्र कैसे चुप रहता, वह भी बोला कि प्रभु! मैंने तो आपको कितने ही युद्धों में विजय प्राप्त करवाई है। क्या भला कोई इस संसार में मुझसे अधिक शक्तिशाली है?
Shree Krishna तो स्वयं ही ईश्वर थे उन्हें यह भांप पाने में तनिक भी देर न लगी कि इन तीनों को खुदपर अहंकार हो गया है। अतः अब कृष्ण को तीनों का अहंकार तोड़ना था। श्री कृष्ण ने गरुड़ से कहा कि तुम हनुमान के पास जाओ और उनसे कहना कि उनके प्रभु श्री राम और माता सीता तुम्हारी प्रतीक्षा में रहा तक रहें हैं। इसके बाद श्री कृष्ण ने सत्यभामा को माता सीता के रूप में तैयार रहने को कहा और स्वयं उन्होंने राम का अवतार ले लिया। श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से मुख्य द्वार पर पहरा देने को कहा कि मेरी आज्ञा के बिना कोई महल में प्रवेश न कर पाए।
गरुड़ ने जाकर Hanuman जी को सन्देशा पहुँचाया और अपने साथ चलने को कहा। पर हनुमान जी ने कहा कि तुम आगे चलो मैं वहां पहुंचता हूँ। गरुड़ उस समय सोच रहा था कि ये वृद्ध वानर न जाने कब तक वहां पहुंचेगा। पर जब गरुड़ द्वारका में पहुंचा तो वह देखता है कि हनुमान जी तो उनसे पहले ही द्वारका पहुँच कर वहां प्रभु श्री राम के चरणों में बैठे हैं। इसपर गरुड़ को बहुत लज्जा महसूस हुई।
Lord Hanuman से श्री राम ने पूछा कि तुम महल में प्रवेश कैसे कर आये? क्या मुख्य द्वार पर तुम्हें किसी ने अंदर से रोका नहीं? इसपर हनुमान जी अपने मुँह से सुदर्शन चक्र को निकलकर कहते हैं कि मुझे अंदर आते समय सुदर्शन चक्र ने रखा था परन्तु मैंने इसे अपने मुख पर रख लिया। मुझे इसके लिए क्षमा करें। इस समय तक गरुड़ को अपनी तीव्र उड़ान का अहम और सुदर्शन चक्र को अपनी शक्ति का अहम समाप्त हो चुका था।
हनुमान जी ने आगे कहा कि हे प्रभु! आपने साथ माता सीता की जगह सिंहासन पर एक दासी क्यों विराजमान है? हनुमान के मुख से इस तरह के वचन सुन Lord Krishna की रानी सत्यभामा का घमंड जैसे चूर-चूर हो गया। हनुमान ने जब उन्हें सीता माता न समझकर दासी कहा तो सुन्दरता पर Satyabhama ka ahankar अब खत्म हो चुका था। इसके बाद तीनों ही प्रभु की लीला समझ गए और प्रभु के चरणों में झुक गए।
सत्यभामा पूर्व जन्म में कौन थी? ( Sathyabama purv janam me kaun thi? )
Satyabhama Shri Krishna की प्रमुख पत्नियों में शामिल थीं जो अपने पूर्वजन्म में सुधर्मा नामक ब्राह्मण की कन्या गुणवती थी। सुधर्मा ब्राह्मण में ने अपनी बेटी का विवाह अपने शिष्य चंद्र से किया था। ब्राह्मण और उनके दामाद चंद्र के बार जंगल गए थे तब जंगल के रास्ते में एक राक्षस ने दोनों को मार डाला। दोनों की मृत्यु के बाद गुणवती को दरिद्रता का सामना करना पड़ा। अपनी दरिद्र अवस्था में गुणवती ने खुद को ठाकुर जी की भक्ति में लीन कर लिया था।