नारियल (Nariyal) एक ऐसा उपयोगी फल है जिसे खाने में भी प्रयोग में लाया जाता है, एक औषधि के रूप में भी यह रामबाण इलाज है और इसके पानी को भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। इतना ही नहीं हिन्दू धर्म में लगभग सभी मांगलिक कार्यों में इसके प्रयोग का अपना अलग महत्व है। श्रीफल (Shri Phal) के नाम से जाना जाने वाला यह फल त्रीदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक है।
दूसरे शब्दों में कहें तो नारियल (Nariyal) एक बेहद उपयोगी फल है जो भारत के तटीय क्षेत्र जैसे- गोवा, केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में पाया जाता है। बताते चलें कि बांग्ला में इसे नारिकेल के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन आज हम नारियल के औषधीय गुणों पर प्रकाश नहीं डालेंगे बल्कि उसके धार्मिक महत्व की चर्चा करेंगे। साथ ही इस बात का भी उल्लेख करेंगे कि आखिर नारियल की उत्पत्ति कैसे हुई (nariyal ki utpatti kaise hui)।
पौराणिक कथा कैसे हुआ नारियल की उत्पत्ति?
नारियल की उत्पत्ति(nariyal ki utpatti) से जुड़ी पौराणिक कथा कहती है कि नारियल का धरती पर अवतरण ऋषि विश्वामित्र द्वारा किया गया था। प्राचीन समय में बहुत ही प्रतापी राजा सत्यव्रत हुआ करते थे। राजा सत्यावर्ती का ईश्वर में पूरी तरह से विश्वास था।
उनके पास किसी भी तरह की कमी नहीं थी फिर चाहे वह धन-सम्पदा हो, वैभव हो या मान-प्रतिष्ठा। सब कुछ होने के बावजूद राजा के मन में एक ऐसी इच्छा थी जिसे वह किसी भी कीमत पर पूरा करना चाहते थे।
राजा की इच्छा थी कि वे पृथ्वीलोक से स्वर्गलोक के दर्शन करें। स्वर्ग के बारे में कही जाने वाली बातें और वहां की सुंदरता राजा सत्यव्रत को अपनी ओर आकर्षित करती थी। परन्तु स्वर्गलोक तक जाने का मार्ग उन्हें ज्ञात नहीं था।
एक बार जब ऋषि विश्वामित्र तपस्या करने के उद्देश्य से अपने घर से बहुत दूर निकल गए और लम्बे समय तक अपने क्षेत्र नहीं पहुंचे तो इसका परिणाम यह हुआ कि वहां सूखा पड़ गया। उनका परिवार भी भूखा-प्यासा भटक रहा था। मुश्किल के इस कठिन दौर में राजा सत्यव्रत ने उनके परिवार की सहायता की।
जब विश्वामित्र तपस्या कर अपने क्षेत्र को लौटे तो उनके परिवार ने राजा द्वारा किये गए उपकार के बारे में ऋषि को कह सुनाया। वे अपने परिवार की बात सुनकर इतने अधिक प्रभावित हुए कि राजा सत्यव्रत के दरबार उन्हें आशीर्वाद देने पहुंचे। दरबार में पहुँच ऋषि विश्वामित्र ने राजा सत्यव्रत को आभार प्रकट किया।
राजा ने आभार स्वीकार कर ऋषि को वर देने के लिए कहा। ऋषि विश्वामित्र ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। यह सुन राजा सत्यव्रत ने उनसे कहा कि वे स्वर्गलोक जाना चाहते हैं परन्तु इसके लिए उन्हें कोई मार्ग नहीं पता। इसलिए क्या वे स्वर्गलोक पहुँचने का मार्ग बता सकते हैं? इस पर ऋषि विश्वामित्र ने थोड़ा सोचा और फिर एक रास्ता तैयार किया।
राजा बहुत खुश हुआ और ऋषि द्वारा तैयार किये गए मार्ग पर आगे बढ़ने लगा। जैसे ही इंद्र देव ने राजा को आते देखा उन्होंने राजा को नीचे की तरफ धकेल दिया। धरती पर गिरते ही राजा ने दुःखी मन से विश्वामित्र को इंद्र देव की हरकत के बारे में बताया। देवता द्वारा इस तरह का व्यवहार किये जाने से ऋषि विश्वामित्र बहुत क्रोधित हुए।
इसके बाद ऋषि विश्वामित्र ने राजा को स्वर्गलोक भेजने के लिए देवताओं के साथ सलाह-मशविरा किया और हल निकाला। हल के अनुसार राजा के लिए अलग से स्वर्गलोक का निर्माण करवाया जाना था जो पृथ्वीलोक और असली स्वर्गलोक के मध्य में होना था। इस मध्यस्था से न तो देवी-देवताओं को कोई परेशानी थी और न ही राजा को कोई परेशानी थी।
इस हल के साथ ही ऋषि विश्वामित्र को एक चिंता घेरे हुए थी कि कहीं हवा के झोंके से मध्य का स्वर्गलोक डगमगा न जाए और राजा फिर से धरती पर न गिर पड़े। इसके लिए उन्होंने नए स्वर्गलोक के नीचे एक खम्बा बनाया। तभी से माना जाता है कि यही खम्बा आगे चलकर पेड़ के मोटे तने के रूप में परिवर्तित हो गया तथा राजा सत्यव्रत का सर एक फल बन गया। इसी पेड़ को तने को आज नारियल का पेड़ और राजा के सिर को नारियल कहा जाता है।