मनुष्य का अहंकार उसके विनाश का एक बड़ा कारण बन सकता है क्योंकि अहंकार से ही हमारे भीतर कई ऐसे विचार जन्म लेते हैं जो बर्बादी की कगार पर ला खड़ा करते हैं। कलयुग में अहंकार शब्द बहुत ही सामान्य है परन्तु सतयुग में जब किसी देवी-देवता को अहंकार होता था तो तुरंत ही उन्हें कोई न कोई ऐसा सबक मिल जाता था जिससे भीतर पनपे अहंकार के गुण समाप्त हो जाते थे। ऐसी अनेकों पौराणिक कथाओं में से आज हम आपके लिए लेकर आएं हैं देवर्षि नारद (Devarshi Narad) के अहंकार से जुड़ी एक कहानी।
नारद मुनि के अहंकार की कहानी (Narad Muni Story)
देवर्षि नारद (Devarshi Narad) बहुत ही तेजस्वी और ज्ञानी थे। भगवान् शिव ( Lord Shiva) की पत्नी पार्वती (Parvati) तो उनकी तारीफ़ करते नहीं थकती थीं। एक बार जब वे भगवान् शिव के सामने नारद मुनि (Narada Muni) की तारीफों के पुल बाँध रही थी। तब शिव जी ने उन्हें कहा कि किसी भी चीज का ज्ञान होना बहुत अच्छी बात है पर उस ज्ञान पर अहंकार होना उस ज्ञान के न होने के समान है।
यह सुन देवी पार्वती ने भगवान् शिव से यह बात कहने का कारण जानना चाहा। इसपर भगवान् शिव बोले कि एक बार देवर्षि नारद को अपने ज्ञान का अहंकार हो चला था। जब भगवान् विष्णु को यह बात पता चली तो वे अपने भक्त में अहंकार नहीं देख पाए और सबक सिखाने के लिए उतारू हो गए।
देवर्षि नारद एक बार हिमालय के पर्वत पर गुफा के समीप पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उस गुफा के निकट गंगा जी बह रही थीं, आस-पास खूब हरियाली थी। उस जगह का सुहावना माहौल देखकर उनका मन किया कि वे इसी स्थान पर विष्णु जी की तपस्या करें। इसके बाद उन्होंने वहीँ पर तपस्या करने का मन बना लिया और गहन तपस्या में लीन हो गए।
जैसे ही इंद्र देव (Indra Dev) को यह ज्ञात हुआ कि नारद मुनि तपस्या कर रहे हैं तो उन्हें अपने राज-पाठ और स्वर्ग को खोने का भय होने लगा। इसलिए उन्होंने मुनि की तपस्या भंग करने के लिए कई प्रयास किये। इसके लिए उन्होंने कामदेव (Kaamdev) की सहायता ली और नारद मुनि के पास भेज दिया।
कामदेव ने वहां पहुँच कर अपनी माया के जरिये वसंत ऋतू को उत्पन्न किया। वसंत ऋतू आते ही वहां हरे-भरे पेड़ पौधे उगने लगे, फूल खिलने लगे और कामाग्नि को भड़काने वाली सुगंधे भी आने लगी। इतना ही नहीं कई अप्सराएं भी वहां पर नृत्य करने लगी। पर अफसोस कामदेव की कोई भी माया सफल न हो पाई।
कामदेव को अपनी माया सफल होने से अधिक भय इस बात का था कि कहीं देवर्षि नारद (Narada) अब क्रोध में आकर उन्हें श्राप न दे डाले। जब Narad नारद मुनि अपनी तपस्या से उठे तो उन्होंने कामदेव को देखा पर उन्हें बिल्कुल भी क्रोध नहीं आया। कामदेव ने नारद मुनि से माफ़ी मांगी और वे वापिस अपने लोक की ओर चले गए।
कामदेव के चले जाने के बाद देवर्षि नारद को अपने ऊपर अहंकार हो गया कि मैंने कामदेव को पराजित कर दिया। अपनी गाथा को सुनाने के लिए वे भगवान् शिव के पास पहुंचे और सारा हाल कह सुनाया। उनके बोलने की प्रवृति से भगवान् शिव तुरंत ही यह समझ गए कि ये सब अपने अहंकार में डूबकर कह रहे हैं।
भगवान् शिव ने सोचा कि विष्णु जी तक उनके भक्त के अहंकार में डूबने की बात पहुंची तो वे इसे सहन नहीं कर पाएंगे। इससे बचाव के लिए शिव नारद से बोले कि जो बात तुमने मुझे बताई है वह विष्णु के समक्ष मत कहना।
अहंकार में डूबे देवर्षि नारद (Devarshi Narad) को शिव की यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने कामदेव की पराजय की गाथा विष्णु जी को भी कह सुनाई। सब बात कहने के बाद नारद वहां से चले गए। विष्णु जी को एक युक्ति सूझी उन्होंने अपनी माया से नारद के मार्ग में एक सुन्दर नगर को बनाया।
उस खूबसूरत नगर में एक शीलनिधि नामक का राज था जिसकी सुन्दर विश्वमोहिनी नामक कन्या का स्वयंवर रचा जाना था। विश्वमोहिनी देवी लक्ष्मी (Devi Lakshmi) ही थीं। स्वयंवर के लिए कई प्रतिभाशाली राजा वहां पधारे हुए थे ताकि वे कन्या से विवाह कर पाए।
देवर्षि नारद ने जैसे ही विश्वमोहिनी की ओर अपनी नज़र डाली वे उसकी तरफ उतना ही अधिक आकर्षित होते चले।उनके मन में कन्या से विवाह करने की इच्छा जागी। विवाह करने के लिए उन्होंने सोचा कि क्यों न मैं एक सुन्दर भेष धारण कर लूँ। खुद को एक सुन्दर युवक बनाने के लिए वे विष्णु जी पास पहुँचते हैं।
नारद (Narad) विष्णु जी से कहते हैं कि वे विश्वमोहिनी नामक कन्या से विवाह करना चाहते हैं इसलिए उन्हें एक सुन्दर युवक का रूप दिया जाए। विष्णु जी उनकी बात सुनकर मुस्काते हुए उन्हें एक वानर रूप दे देते हैं। नारद को लगता है वह बहुत सुन्दर लग रहे हैं इसलिए वे चल देते हैं विश्वमोहिनी से विवाह करने। विष्णु जी की यह लीला पास में वहां पर छिपे हुए दो शिव गण देख रहे थे।
अब नारद (Narad) विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुँचते हैं और उनके साथ दोनों शिव गण भी ब्राह्मण का रूप धारण कर पहुँचते हैं। स्वयं भगवान् विष्णु (Lord Vishnu) जो राजा का रूप धारण किये स्वयंवर में आये थे। स्वयंवर शुरू हुआ और विश्वमोहिनी नामक कन्या ने वरमाला राजा का रूप धारण किये विष्णु के गले में डाल दी। यह देख नारद को बहुत आश्चर्य हुआ और क्रोध भी आया।
पास में खड़े वे दोनों ब्राह्मण बोले कि ज़रा खुद को दर्पण में तो निहारो। यह सुन नारद ने जल में अपना मुख निहारा तब उन्हें पता चला कि वे तो एक वानर रूप धारण किये हुए है। अपने वानर रूप को देख नारद को बहुत क्रोध आया और उन्होंने दोनों शिव गणों को राक्षस हो जाने का श्राप दिया। कुछ देर बाद नारद (Narada) अपने असली रूप में आ चुके थे। उन्हें विष्णु जी पर बहुत गुस्सा आ रहा था अपने गुस्से को लेकर वे विष्णु जी के पास पहुँचते है।
रामचरितमानस के बालकाण्ड में नारद अपने क्रोध को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं :
असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहार।।
अर्थ : असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो।
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई।
भलेहि मंद मंदेहि भल करहु। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहु।।
अर्थ : तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छन्दता से) वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते।
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति अंशक मन सदा उछाहू।
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहुँ साधा।।
अर्थ : सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यन्त निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुम को किसी ने ठीक नहीं किया था।
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा।।
अर्थ : अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबर्दस्त आदमी से छेड़खानी की है। अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे।) जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है।
कपि आकृति तुम्ह किन्ही हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी।।
अर्थ : तुमने हमारा रूप बंदर का सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होंगे।
इसके बाद श्रापित शिव गण माया से मुक्त नारद के पास पहुँच कर क्षमा याचना करते हैं। उनकी प्रार्थना को सुनकर कहते हैं कि तुम दोनों धरती पर रावण (Ravan) और कुम्भकर्ण (Kumbhakarna) के रूप में जन्म लोगे और प्रभु श्री राम (Prabhu Shri Ram) के हाथों मारे जाओगे। इसके बाद ही तुम्हें श्राप से मुक्ति मिलेगी।
(भगवान् विष्णु की पूजा करने वालों को तुलसी माला धारण करने या फिर तुलसी माला से जाप करना चाहिए। ऐसा करने से भगवान् विष्णु का आशीर्वाद सदैव जातकों पर बना रहेगा क्योंकि यह उनकी तुलसी सबसे प्रिय है। ध्यान रहे कि वह माला असली होनी चाहिए। Original Tulsi Mala आप prabhubhakti.in से Online Buy कर सकते हैं।)